दिन बीतते हैं
बीतते रहते हैं
बीत जाते हैं धीरे-धीरे
उम्मीदों में बँधा
जीता जीवन फिर भी
रीता रह जाता है
जो नहीं कहते हम
समय कह जाता है
कह नहीं पाता समय जो
शेष रह जाता है
पकता है धीरे धीरे
बचा हुआ अंश
किसी के लिए स्वाद बनता है
किसी के लिए नासूर
स्वाद भूल जाता है
उसे दूसरा पदार्थ मिलता है
नासूर मथता है तन-मन को
आसान नहीं होता बचे जीवन में
भूल जाना उसको
अर्पण करना होता है पूरे अंग को